हम हमेशा जंगल राज को कोसते हैं लेकिन आज परिस्थिति ऐसी है कि लगता है जंगल राज अच्छा था, कम से कम वहाँ हर प्राणी को पता था कि उसका दुश्मन कौन है।
लेकिन वैश्विक महासत्ता होने जा रहे आज हमारे देश में इन्सानों ने नीच से नीचतम स्तर पर अपनी संस्कारी मानवीयता लाकर रख दी है। जाती, धर्म, पैसा, प्रतिष्ठा के लिए और उसीके बलबूते वर्चस्ववादियों ने हर क्षेत्र में अपनी सत्ता कायम की है। हैरत की बात यह है की यह वर्चस्ववादी दुर्बलों पर अपनी शक्ति का प्रयोग तो करते ही है लेकिन एक दूसरे के खिलाफ अपना परचम लहराने के लिए भी करते हैं। एक दूसरे पर हावी होने की कवायत करने में अपनी सारी जिंदगी गँवाते हैं और उसी को अपना असीम शौर्य और कर्तव्य समझते हैं। इसमे वो लोग पिसते हैं जिन्हें किसी के श्रेष्ठतम होने से कोई मतलब नहीं होता, उन्हें बस अपनी जिंदगी सुकून से जीनी होती है। लेकिन ऐसा होता नहीं है।
गरीबों को अमीरों से दुश्मनी नहीं होती लेकिन घृणा जरूर होती है, निर्बल को शक्तिशाली से दहशत नहीं होती लेकिन डर जरूर होता है, कनिष्ठवर्णियों को उच्चावर्णियों से जलन नहीं होती लेकिन दूरी जरूर होती है। इसके सीधे कारक वही लोग है जो अपने अमीर, शक्तिशाली और उच्चवर्णीय होने के साथ अपने पुरखों की जातीय, वर्गीय और वर्णीय गरिमा को हर हाल में बरकरार रखना चाहते है। साम, दाम, दंड, भेद यह सभी अस्त्र वो अपने बाप की जागीर समझ कर इस्तेमाल करते हैं। इन्ही अस्त्रों का उपयोग कर अपने वर्चस्व को नियमित किया जाता है जिससे मानवीयता की दूरियाँ और भी ज्यादा बढ़ जाती हैं । वो आने वाली पीढ़ियों में अपने वर्चस्व की गरिमा बहाते रहते है और उच्च से उच्चतम और आधुनिक होती जा रही उनकी पीढ़ियाँ अपनी अपनी परम्पराओं के जंगल में उसी आदिम परदादा के नक्शे कदम पर चलती हैं जिसने ‘सर सलामत तो पगड़ी पचास’ के संस्कार दिये थे।
इंसान इस जीवसृष्टि का हिस्सा है। यहाँ हर्बर्ट स्पेन्सर का ‘सरवायवल ऑफ द फिटेस्ट’ का ही नियम चलता है। और फिटेस्ट या योग्यतम वो होता है जो वक़्त के साथ बदलता है। जो बदलता नहीं उसका सरवायवल मतलब उत्तरजीविता खतम हो जाती है। डायनोसोर इसके उत्तम उदाहरण है। मानव अगर यूंही अपने ही नस्ल के प्राणियों से दुश्मनी करता रहेगा और सदियों तक ऐसा ही करता रहेगा तो उसे खतम होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी।
एक इंसान ने दूसरे इंसान से दुश्मनी, घृणा नहीं करनी चाहिए यह आवाज कितनी ही बार हर सोचने समझने वाले दिमाग से निकलती है लेकिन दिमाग का दायरा और बढ्ने के बजाय वो दिल पर आके थम जाता है। मैं, मेरा परिवार, मेरा समाज, मेरी अन्तर्जात, मेरी जात, मेरा धर्म, मेरा विश्वास, मेरी रूढ़ियाँ, मेरी परम्पराएँ इन सब के बोझ तले ‘मेरा अस्तित्व’ कहीं दब जाता है।
मेरा अस्तित्व इस पृथ्वी पर, मेरा अस्तित्व इस वातावरण में, मेरा अस्तित्व इस ग्रह तारों से भरे अवकाश में। मेरा और मेरे आने वाली पीढ़ियों का अस्तित्व मेरे जात, धर्म, पैसा, प्रतिष्ठा पर आधारित नहीं, ना ही यह मेरी धर्मनिरपेक्षता, उदारता पर आधारित है। मेरा अस्तित्व अगर किसी पर आधारित है तो बस एकत्रित समृद्धि पर। इस पृथ्वी के अन्य जीवों जैसे ‘जिओ और जीने दो’ इस नियम का पालन करते हुए अगर हर कोई सुख शांति से जीने लगे तो ही ‘हम सब का अस्तित्व’ रहेगा।
हमारा अस्तित्व आज के दौर में जितना जरूरी है उतनी और कोई चीज नहीं हो सकती। सम्राट अशोक ने कलिंग पर विजय पाने के बाद उसे निराशा आई क्योंकि जिनपर वो शान से राज कर सके ऐसा कोई मगध और उसके विजयी जनपद में बचा ही नहीं था। इतिहास दूसरे तरीके से ही सही लेकिन दोहराता जरूर है।
आज पूरी मानवजात एक भयंकर संकट से गुजर रही है और वो संकट है जलवायु परिवर्तन का । हमारे इस पृथ्वी का बहुत कुछ हमने अपने जरूरतों के लिए लूट लिया है । पृथ्वी तो देती रही लेकिन हमारा लेने का तरीका गलत रहा। और आज पृथ्वी किसी असहाय बच्चे की तरह बिलग रही है। उसका रुदन हमें सुनाई नहीं देता, लेकिन कहते हैं ना, जिसका रुदन सुनाई नहीं देता उसका दर्द बहुत बड़ा होता है। इस दर्द की वेदना हमें तब पता चलती है जब पानी नहीं बरसता, जमीने बंजर हो जाती है और हमारा पेट भरने वाला किसान मजबूरी में दम तोड़ देता है।
हम एअर कंडीशन न्यूजरूम में बैठ कर कार्बन डायोक्साइड का और ज्यादा उत्सर्जन करते हैं और उस किसान की खबर देते हैं और अपने एअर कंडीशन घरों में उसे देख कर दुख जताते है। हम उस मेट्रो में चलते वक़्त ट्विटर पर “गाय की हत्या” को लेकर किए कमेंट्स पढ़ते है जिसे बनाते वक़्त इलाके के पानी के संसाधन खतम कर दिये गए थे। हमे बुलेट ट्रेन विकास लगती है और उसके खिलाफ आंदोलन करने वाला किसान विकास विरोधी। हमें बुलेट ट्रेन के तले दबने वाली हजारो हेक्टेअर उपजाऊ जमीन नहीं दिखती। रत्नागिरी के नाणार में बनने वाली रिफायनरी वहाँ के नागरिकों के आंदोलन के बाद बंद हो जाती है, लेकिन पता नहीं सरकार की क्या मजबूरी है कि वो वही रिफायनरी रायगड में लगाना चाहते है। एक जगह पर जानलेवा होने वाला विकास दूसरी जगह पर जीवनदाइ कैसे हो सकता है? लेकिन ऐसा करने वाली शासन प्रणाली हमें विकासशील लगती है।
हम इसी तरह हमारी पृथ्वी को निचोड़ते रहे हैं और हमें पता ही नहीं होता कि हम हमारे ही अस्तित्व पर धावा बोल रहे हैं। हम बारिश नहीं होती इसके लिए पेड़ लगाने की बात करते हैं लेकिन गलत तरीके से हो रहे इंडस्ट्रियलायजेशन के बारे में जो बोलते हैं उनकी आवाज भी पृथ्वी की आवाज़ की तरह अनसुनी की जाती है। दुनियाभर में जलवायु परिवर्तन के बारे में बाते हो रही हैं, आंदोलन हो रहे हैं और हम हैं कि जात पात में तलवारे उछाल रह हैं। हमें हमसे ज्यादा हमारे अपने अपने ईश्वर का अस्तित्व प्यारा है। हम नहीं समझते कि पूजक है तभी तो ‘पूजनीय’ भी है।
हमें अपने बीच के सारे गीले शिकवे, उच - नीच, अमीर - गरीब का भेद मिटा कर इस पृथ्वी को बचाना है। अपने घर को बचाना है। भाषा बनाने वाले ने भी क्या खूब बनाई है। गृह और ग्रह में सिर्फ एक व्यंजन का फर्क रखा है। गृह जहां हम रहते है और ग्रह जहां हमारा गृह रहता है।
अपने इस घर को बचाकर हम अपने आप पर मेहरबानी करेंगे। इसलिए अगर इस भयंकर संकट से हम बच जाते हैं तो अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रतिज्ञा जरूर करेंगे। “हमारे अकेले के स्वार्थ से पहले हम आने वाली पीढ़ियों के स्वास्थ्य के बारे में सोचेंगे। हम हमसे ज्यादा हमारे घर के बारे में, इस पृथ्वी के बारे में सोचेंगे। हम धरती का सीना चीर कर पानी तो निकाल सकते हैं लेकिन झरने को ही उखाड़ने से पहले हजारों बार सोचेंगे।“
हम इस ब्लॉग के अंदर ही एक सीरीज
शुरू करने जा रहे है, जिसका नाम हमने रखा है – धरा-नाद। इसका मतलब तो आप जानते ही
हो। हमारी पृथ्वी, हमारी यह धरा हमसे कुछ कहना चाहती है। उसकी बात, उसकी वो आवाज
जो हमें सुनानी चाहिए उसी नाद को हमने शब्दों में बयान करने की कोशिश की है। इसके लिए
दुनियाभर के पत्रिकाओं में आने वाले लेख (उनके क्रेडिट के साथ) और आसपास हो रही सभी
गतिविधियों का समावेश होगा।
0 Comments
Post a Comment