आजकल हवामें आंसूओं से निकला बाष्प कुछ ज्यादा ही हो गया है. भविष्य का नज़ारा पहले से कई ज्यादा धुंधला हो चला है. सच्चाई कहीं दिखती नहीं और बुराई किसी को देखनी नहीं. सुना है, भारतमाता के इस बगीचे में अब तितलियाँ भी अपने कोष से बाहर नहीं निकल सकती क्यूँ की जंगल के कुछ भेड़िये अपने खुनी इरादे को अमली जामा पहनाते हुए आसपास मंडरा रहे है. यह कैसी आसेतुहिमालय भूमि है जहाँ दहशतमें है तो कोई वहशत में?
जिस संस्कृति ने हमें सिखाया था की शरीर आत्मा का मंदिर है, उसी संस्कृति के
रक्षक किसी के भी शरीर के साथ उसकी आत्मा की भी चिथड़ीया उड़ाते है तब वह संस्कृति
विकृति में तबदील हो जाती है और सारा समाज विकृत बन जाता है. लोकतंत्र के सभी
स्तम्भ डगमगाने लगते है. जो ताकतवर है, दबंग है, दूसरों को झुकाना जानते है, ऐसे
दरिन्दे ही इस पतझड़ में भी फलफूल जाते है. हर्बर्ट स्पेन्सर की उक्ती “Servival of
the Fittest” उलटे तरीक़े से सच होने लगती है. वो दरिन्दे अपने आप को बचाए रखने
रखने के लिए ऐसे कई उलटे तरीक़े अपनाते है. किसी भी उम्र की औरत का बलात्कार कर
अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना यह एक ऐसा ही उलटा तरीका है.
सवाल यह है की इन्सान अपनी जोर आज़माइश के लिए बलात्कार जैसी घिनौनी चीज का
इस्तेमाल क्यूँ कर रहे है? क्या इससे वाकई उनका जोर पता चलता है? क्या वाकई उनका
धर्म, जात बड़ी हो जाती है ? क्या वाकई उनकी वासना का शमन होता है ? यह सिर्फ जोर
अजमाइश है या फिर लोग निडर होते होते बेडर हो गए है, जिन्हें कायदे कानून से कोई
डर नहीं लगता, जिन्हें यकीन हो चला है की कानून के हाथ लम्बे तो है लेकिन उनपर
लालच का तेल लगा हुआ है जिससे गुनेहगार आसानी से फिसल जाते है. बात बलात्कार जैसे
संगीन अपराध की हो या बम धमाके, जातीय दंगे या भ्रष्टाचार की, इनके गुनेहगार पकड़े
तो जाते है, कुछ दिन, कुछ महीने, कुछ साल जेल में भी रहते है और उतने दिन उनके
लाभार्थी जेल के बाहर रहकर कानून के लम्बे हाथोंपर चिकनी परत ज़माने में लगे रहते
है. फिर एक दिन ऐसा भी आता है जब उन गुनेहगारों को बाइज्जत बरी किया जाता है. कहाँ
से आयी इतनी वेहेशियत जो दहशत को अपना हथियार समझने लगती है?
जहाँ इस तरह के समाज विघातक लोगोंको बेल तक नहीं मिलनी चाहिए वहाँ उनका
बाइज्जत बरी होना उस तरह के गुनाहों को बढ़ावा देने के लिए काफी होता है. और यही से
कानून को अपनी जेब में लेकर घुमने वालों की पैदाइश होकर उनकी पैदावार दिन ब दिन
बढ़ती है. ‘कानून का अंकुश’ लगना दूर, कानून का डर कोसो दूर रहता है और ‘हम करे सो
कायदा’ का उन्माद अपनी चरम पर पोहोचता है. आम आदमी को न्यायालयीन प्रक्रिया का
विश्वसनीय होना ही अविश्वसनीय लगने लगता है. धीमी प्रक्रिया और कई सारी कमियाँ
कानून को लचीला बनाते बनाते उसे टुकडो टुकडो में तितर बितर कर देती है.
गुनेहगारोंको फिसलने का और प्रसार माध्यमों को “अपनी राय” रखने का, और जनता की राय
को “अपनी राय” में बदलने का पूरा अवसर मिल जाता है. लोगों को मुद्दे दिए जाते है
और लोग अपने अपने कप्पे बना कर “पॅनल डिस्कशन” करते है, कभी चाय पर तो कभी शराब पर
चर्चा होती है. जो अपनी मतलब का और अपनी विचारधारा का नहीं उसपर ऊँगली उठाते है.
और जब चर्चा से जी नहीं भरता तब ऐसी धिनौनी हरकते करते है की पूरी दुनिया में देश
के नाम का बुरे तरीक़े से डंका बजता है.
जातपात के कीटाणु तो इन्सान के पेशियों में पल रहे है और उनके डायनोसोर बन रहे
है. जातपात, ऊँच नीच के नाम पर इतना लड़ते है की बच्चे तक नहीं छूटते उनसे. और
कितना अध:पात होना बाकी है ?
इन सबमे अगर कोई अच्छा काम करे भी तो वो सोशल मिडिया पर टारगेट बन जाता है.
ट्रोल करनेवाले अपनी क्रिएटीविटी ऐसी दिखाते है की विक्टिम कुछ बोल भी नहीं सकता.
इसी तरह का खच्चीकरण समाज को और ज्यादा गहरी खाई में धकेलता है. और अगर कुछ भी
नहीं मिला तो इतिहास के गड़े मुडदे उखाड़ कर उनपर बवाल मचाया जाता है. और किसी भी
उद्रेक का टारगेट होते है बच्चे. बलात्कार करके, यौन शोषण करके, मजदूरी करवा के,
मारपिट कराके उनको समय से पहले ख़तम किया जाता है या बुढा बनाया जाता है. या तो
उनके दिमाग में जहरीले विचार बोये जाते है, बदले की भावना पिरोयी जाती है, ताकि वो
कल भी आपस में लड़े. इसी तरह से तो पीढ़ी दर पीढ़ी विकृति बढती जाती है.
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