मुझे यकीन था की शब्द दिल की बात कहते है,
ख़ुशी को बयां करते है और दुखी दिल को सह्लाते है,
आधार देते है, नम्रता देते है और भय से आझादी भी.
लेकीन यह मंजर कुछ समझ में नही आता.
शब्दो से ही जुड गया है असंवेदनशीलता का नाता.
यह असंवेदनशीलता हमे अश्म युग में ले जा रही है...
जंगल राज का आईना दिखा रही है.
गौर से देखो जरा इसे
डार्विन का सिद्धांत अपनी जडे खोदता हुआ पीछे खींच रहा है....
और हम खिंचते जा रहे है....
आंखोपर यह कौन से आत्माभिमान की पट्टी बांधी है हमने.... ?
बुद्धी पर यह कौन सी परंपरा का पडदा पडा है...?
यह कौन सा अज्ञान है जो टेक्नो सेवी के भी दिमाग में घर कर रहा है.... ?
यह कौन सी बाजी है जो मोहरे बना कर चकमा दे जाती है.... ?
मेरे देश की करुणा और भाईचारे की पहचान
शांतीदूत बुद्ध ने बनाई थी...
कभी सोचा न था की अंतर्गत युद्ध की पहचान भी
यह बुद्ध की भूमी ही बन जायेगी....
भूले भटके शब्दों को इतना भी ना उछालो मित्रो की
हमारी राहे बदल जाए....
माफ़ कर दो उनके वक्तव्यों को नाबालिग समझ कर

तो हमरी दुनिया संवर जाए...